Tuesday, November 25, 2014

चेहरा

ज़िंदगी की काफी गूढ़ पहलू आजकल मेट्रो (डीएमआरसी) में देखने मिल जाता है , पिछले हफ्ते मैं रोजाना की तरह 9am मेट्रो में सफर कर रही थी , राजीव चौक से एक मुस्लिम महिला गोद में अपने पोते  को लेकर आई और एक महाशय से सीट देने का अनुरोध किया। 2-3 स्टेशन बाद उस बच्चे ने अपना मुह सामने की तरफ किया तो मैंने देखा की उसका एक तरफ का चेहरा बुरी तरह जला हुआ है... वो बच्चा सबके साथ खेलने की कोशिश कर रहा था , पर मेट्रो में इंसान कम मशीन जायदा चलते है ..... बच्चे को  लोग जानबूझकर इगनॉर कर रहे थे या सच में व्यस्त थे कह नहीं सकती हूँ ।  मैं उस सीट के दूसरी कोने पर खड़ी थी और उस दिन किताबों के पन्ने उलटने के बजाए मैं उस  बच्चे  की  आँखों में उलझ गई।
समझ नहीं आया की इतनी बुरी तरह वो नन्हा सा फरिश्ता कैसे जल गया?? उसकी एक तरफ की आँखों में माशूमियत थी  व  दूसरी आँख में एक अजीब सा सूनापन.....दूसरी आँख की पलक भी जल जाने पर वो बच्चा जो अपनी आँखें गोल गोल घूमा रहा था उसे देख कर पता नहीं चल रहा है की वो क्या कहना चाहता है , पहली बार मैंने खुद को एक बच्चे की आँख पढ़ने में असमर्थ पाया।

बड़े शहर के लोग की भावनाएँ भी लोगो के बाहरी रूप को देख कर प्रभावित होती है वो मुझे उस दिन मेट्रो में साफ दिख रहा था। एक कटु सत्य का एहसाह हुआ- लोग कितना भी बोल ले पर आज भी शरीरीक खूबसूरती आंतरिक मन से पहेले आती है , किसी की भावनाओ को लोग ऐसे ही कुचल देते क्यूंकी कहीं न कहीं उन्हे और अच्छा पाने की चाह थी ..... 

आँखों के सामने एसिड-प्रतारित लोगो के वेदना पीड़ा आने लगी और खुद को उनके जगह पर रख कर उनकी पीड़ा का एहसाह हुआ , कॉलेज के समय बायो –टेक की लैब में डीएनए निकलते समय हाथ काफी बार जला पर अगर किसी के ऊपर एसिड फेक दे या किसी को जिंदा जला दे तो उसे कितने जायदा पीड़ा होती होगी उसका एहसाह मुझे होने लगा...उस बच्चे के चेहरे में मुझे सत्यमेव जयते में आई हुई लक्ष्मी का चेहरा दिखा और उस इंसान का जिनहोने उनसे शादी करके अपना जीवन साथी बनाए , एक अलग सा सम्मान /आभार उनके लिए आने लगा , लोग बड़ी बड़ी बातें बोलते है पर किसी के हृदय के खूबसूरती को देख कर उसे अपना लेना बहुत कम लोगो  के बस में होता है........और न जाने क्या क्या बातें आखो के सामने चल-चित्र की तरह चलने लगा......
इतने में एम्स पर मेट्रो रुकी और वो नन्हा फरिश्ता अपने दादा –दादी के जाने लगा तो मैं अपने ख़यालो की दुनिया से बाहर आई

23.11.2014
( आज एक हफ्ते गुजर जाने के बाद भी उस बच्चे की आखें /चेहरा मेरे सामने से हट नहीं रहा है , तो सोचा लिखकर मन हल्का कर लूँ )

1 comment:

  1. तुम्हरे आदर्शों से तो पहले से वाक़िफ़ था, लेकिन तुम्हरे ब्लॉग्स पढ़ने के बाद तुम्हारे लेखनी से रूबरू होने का मौका मिला | पढ़ के बेहद प्रशन्न्ता हुई, की तुम आज भी उन आदर्शों में विश्वास रखती हो | उससे ज़्यादा इस बात को देख के खुशी हुई की, मेरे जानकर में, मेरा कोई दोस्त, हिन्दी को मध्यम बनाया अपने भावनाओ को समटने के लिए | वाकई देख कर दुख होता है की हमरे समाज में अब आदर्शवाद एक आदर्श बन कर रह गया है | उदाहरण दे कर कई जीते है लेकिन उदाहरण बन के बहोत कम | तुमने इतनी सरलता से एक ऐसे मार्मिक प्रश्न को पूछा है, जिसका जवाब हमे उदाहरण दे कर नही बल्कि उदाहरण बन के सोचना चाहिए | क्या वाकई बाह्य खूबसूरती आंतरिक खूबसूरती से ज़्यादा मायने रखती है ? शायद इसका जवाब उस छोटे से बच्चे के आँखों में मिल जाए | राज कपूर का एक गाना याद आता है "जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए" | तुम्हरे सारे पोस्ट्स पढ़े | सब अच्छे लगे | तुम्हरे इस प्रयास के लिए तुमको हार्दिक बधाई |

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