Tuesday, January 20, 2015

पलामू के सेवा निवृत हेडमास्टर

एक डॉक्टर के बेटी होने के नाते अक्सर भाँति- भाँति के लोगो से मिलने का अवसर मिलता रहता है, पर सन 2012 जून को पापा का एक्सिडेंट होने के कारण उनके साथ 10-15 दिन अस्पताल रहकर नक्सल-वाद प्रभावित इलाको  के आम लोगो से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।  पापा को जिस रूम में एड्मिट किया था उसके बगल वाले कमरे  में  पलामू के एक वृद्ध (रिटायर्ड) हेडमास्टर, श्री नारायण पाण्डेय, अपनी पत्नी के इलाज़ हेतु ठहरे थे ।  एक वृद्ध को अकेले काम करते देख मुझे अच्छा नहीं लगता था और जितना हो सके  उतना उनके लिए करने की कोशिश करती जिसके फलस्वरूप उन्होने अपनी ज़िंदगी के कुछ अनुभूतियाँ मेरे साथ बांटी। उनमें  से 2 मैं सबके के साथ share करना चहुंगी।आगे जो भी लिख रही हूँ वो 3 साल पुरानी स्मृतियों को वैसे ही परोसने की कोशिश कर रही हूँ।

1. पहली कहानी नक्सलियो पर थी, जिसने मेरा नज़रिया उनके लिए बदला 

पाण्डेयजी : "मैं अपने पूरे जीवन में एक बहुत ईमानदार व निर्भीक शिक्षक था और सरकारी विद्यालय के प्रधायपक से सेवा निवृत हुआ  , हमारे समय हमे तब तक जवान समझा जाता था जब तक हमारे बच्चो को सजा देने के क्रम में बेत न टूट जाए...मैं जब इस नज़रिये से जवान था तब नक्सलियो ने बढ़ना शुरू किया था , उन्हे खीज़ थी सरकारी तंत्र से , और सरकारी तंत्र से इतने वर्षो तक नगण्य रहने पर ये खीज़ स्वाभाविक होती है । अपना छाप छोड़ने के लिए नक्सली भी हमेशा वर्दी -धारियों व सरकारी लोगो को निशाना बनाते थे और छुपने के लिए किसी गाँव में चले जाते थे जहां उनकी छवि "रोबिनहूड़" की थी ( कुछ लोग उनसे डरते थे व  कुछ मसीहा मानते थे )। एक बार मैं सुबह गाँव की पगडंडी पर साइकल से स्कूल की तरफ जा रहा था तो मुझे कुछ बंदूक धारी स्कूल के आसपास  दिखे,सबके चेहरे पर गमछा से ढका हुआ था।  मैंने बिना उनसे कुछ बात किए चुप चाप अपने कक्षा में गया और बच्चो से पूछा की आज क्या पढ़ना है विषय था रूस क्रांति  । इस बीच मैंने देखा की जो आदमी मुझे स्कूल के मुख्य द्वार पर घूर रहा था व जिसके हाव भाव मुझे उस समूह का  मुखिया बता रहे थे , वो मेरी कक्षा में आकार सबसे पीछे बैठ गया। उसके आने का मकसद मुझे नहीं बता था क्या पता उसे लग रहा हो की कहीं मैं बच्चो को भड़का न दूँ (क्यूंकी एक शिक्षक ने जब जब ललकारा है तभी विद्रोह हुआ है ) । मैंने ये भाँप लिया था की ये लोग नक्सली है और बच्चो डरे नहीं , उन्हे व्यस्त रखना जरूरी है , अन्य शिक्षक पढ़ाने से भयभीत थे पर प्रधायप्क होने के नाते मुझे अपनी ज़िम्मेदारी पता थी और बचपन से भी मुझे किसी बात का कभी भय नहीं रहता है, जीवन  ईश्वर की दी हुई है , जब तक जिंदा हूँ कर्म करूंगा , और वो भी नीतिगत । 
पढ़ाकर मैं अपने ऑफिस गया और शाम बच्चे और अन्य शिक्षक को घर भेजकर मैं स्वयं घर के लिए निकल गया। नक्सली कब निकले कह नहीं सकता। पर पलामू में ये नक्सली का मामला काफी तेज़ था, कुछ दिनो बाद  नक्सलियो ने कोई हरताल की थी और मेरे स्कूल जाने का रास्ता उनके हरताल के इलाके से होकर गुजरता था , मैं निर्भीक होकर अपनी कक्षा की तरफ बढ़ा की अचानक एक  नकाबपोश व्यक्ति ने मेरा रास्ता रोका , पास आकार मैंने ऐसा लगा की मैंने कहीं उसे देखा है , उसने झुककर पैर छूये और मुझे जाने का रास्ता दिया, मैं आश्चर्- चकित था , मेरी जिज्ञासा देखते हुए उसने बोला की आपको याद है आपके स्कूल में कुछ दिन पूर्व हमारे जैसे लोग आ गए थे , मैं वही हूँ जो आपकी कक्षा  में था,हम लोग किसी शरीफ और कर्मशील आदमी को तंग नहीं करते , आप तो हमारे जैसे गरीब के बच्चो को पढ़ा रहे है , आप निश्चित रहिए , आपको कभी कोई भी कुछ नहीं कहेगा। "
मेरा विचार : 
पाण्डेयजी  के इस कहानी से मुझे लगा की मुझे भी बिना डरे कर्म करते रहना चाहिए और अगर वो किसी के भलाई के लिए है तो मेरा कभी बुरा नहीं होगा। मैं सोचती हूँ की जहां से जो सीखने मिले सीख लूँ, हर इंसान के अंदर में अच्छाइयाँ है और मैं सिर्फ उसपर ध्यान दूँ, हलाकी मेरे काफी शुभचिंतकों को लगता है की इस तरफ का व्यवहार व सब पर विश्वास करना उचित नहीं है पर मुझे पता है की मेरे विचार इतने दृद है की कोई भी बुरी चीज़ मुझ तक नहीं आ सकती। पांडेजी से मिलकर उनके साथ कुछ दिन व्यतीत कर के मुझे लगा की अगर मैं इन गरीब लोगो के लिए कुछ करूँ तो शायद नक्सल जैसे कुछ और उत्पन्न न हो , अगर किसी को उसका हक़ बिना मांगे मिले तो वो अपनी ज़िंदगी क्यूँ दूसरों की जान लेने में लगाएगा । हाँ आज नक्सलियों के बारे में काफी कुछ गलत सुनने मिल रहा है और यहाँ तक लोग बोल रहे है की उनके पास हथियार पाकिस्तान व दूसरे मुल्को से आते है , वो वर्दी धारियों को मार रहे है ये देख कर मन क्षुभ्द हो जाता है , पर फिर भी मन में अब भी यही है की मैं वहाँ खुद जाकर वहाँ रहूँगी वहाँ काम करूंगी , हर चीज़ का समाधान है और उन्हे वो अवसर देकर उन्हे सपने देखने का मौका दूँगी,जिससे वो बंदूक न पकड़कर हाथ मिलकर काम करे। राजनेता व सत्ता धारी नक्सल को खत्म नहीं होने देंगे ये मुझे पता है पर मैं अंतिम शवास तक विस्वास रखूंगी। कैसे होगा वो प्रकुति निर्णय लेगी पर मुझे ये करना है और ये करके रहूँगी। 


2. दूसरी कहानी धर्म परिवर्तन पर है

 पाण्डेयजी अपने गाँव की ही कहानी बता रहे थे , उनके एक जानने वाले है मुझे स्पस्ट याद नहीं आ रहा है पर वो सज्जन नाम के अंत में 'ख़ान' लिखते थे और घर में ब्राह्मणो के संस्कार पालन करते है । पांडे जी के अनुसार इस बात का पता उन्हे तब चला जब उस सज्जन ने उन्हे अपने घर चाय के लिए बुलाया, एक ब्राह्मण का मुस्लिम के घर चाय पीने की बात ग्रामीण इलाके में उस समय सोचा बहुत हिम्मत वाली बात थी पर फिर भी पांडे जी वहाँ गए और ये देखकर उन्होने इसका कारण पूछा। उस सज्जन ने चाय के दौरान उन्हे बताया की जब  औरंगजेब के समय धर्म परिवर्तन जोरों पर था तो  जब तक 1 मन जनेऊ उसके सामने नहीं आ जाए  तब तक बादशाह कुछ खाता नहीं था। उस समय इनके पूर्वज ने नाम तो बदल लिया पर धर्म नहीं।
मेरा विचार :
पाठको को बता दूँ की जनेऊ का महत्व हमारे हिन्दू समाज में काफी अधिक है , क्यूँ है वो मुझे नहीं पता पर ब्राह्मणो व राजपूतो की जनेऊ औरों से अलग बनाई जाती थी और जनेऊ हटाने का मतलब धर्म परिवर्तन कर लिया। उस समय कोई राजपूत या ब्राह्मण जनेऊ हटाने का सोच भी नहीं सकता था । ये मुस्लिम नाम के हिन्दू सज्जन में दूरदर्शिता अपनाई और नाम के आगे ख़ान लगा लिया , मुल्ले के तरह दाड़ी रखने लगे , मतलब तन से मुस्लिम व मन से शुद्ध ब्राह्मण। पांडे जी ने उनसे पूछा  की अब आज़ादी के बाद नाम क्यूँ नहीं बदल लेते तो उनका जबाब था की नाम में क्या रखा है , हमारे लिए तो हिन्दू हो या मुस्लिम दोनों एक है । अब नाम बदलवाने व जमीन- जायदाद की रजिस्ट्री करवाने में समय क्यूँ बर्बाद करूँ। पांडे जी के बोलने से मुझे लगा की आज भी बिहार - झारखंड - उत्तर प्रदेश के काफी घर ऐसे है जहां ऐसे भी भाई रहते है जिनके मजहब अलग है पर अब भी अमन से जी रहे है । 
: मेरे मानने से वो मुस्लिम / हिन्दू सज्जन सही मायने में भारतीय थे , हिंदुस्तानी व एक सच्चे "सेकुलर" थे जो धर्म जाती मजहब से बहुत ऊपर उठ चुके थे , ऐसे लोग ही भारत को नई बुलंदियों पर ले जा सकते है  न की वो नेता जो मजहब के नाम पर दंगे करवाने व जाती के नाम पर ,आरक्षण के नाम पर लोगो को बाटने  में लगे रहते है । और धर्म परिवर्तन को मुद्दा बनाने की जरूरत मीडिया को नहीं थी , मीडिया आजकल सिर्फ TRP बढ़ाने के लिए कुछ भी छाप देती है और एक सकारात्मक  भूमिका के बजाये जायदा समय नकारात्मक भूमिका निभाने  में लगी हुई है। 


जय हिन्द! जय भारत !!

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