Monday, January 5, 2015

जनकसुता वैदेही


रविवार की सुबह ठंड और बढ़ गई थी , धूप की चाह में वैदेही घर के सामने पार्क में अखबार लेकर बैठी,सामने के  मंदिर की आरती / घंटी की आवाज़ स्पस्ट सुनाई दे रही थी। पर्व का मौसम हो तो लोगो की श्रद्धा पत्थरों पर बहुत जायदा उमर पड़ती है , कोई नए नए कश्मीरी शाल पत्थरों पर ओढ़ाता, कोई अखंड दीप जलाता.....तो कोई हलवा पूरी खिलता। वो भी इन घण्टियों के साथ पुराने समय को याद कर रही थी जब वो खुद को और समाज उसे आस्तिक मानता था , आज समाज उसे क्या मानता है पता नहीं......आस्तिक या नास्तिक, समय के चक्र में खो सी गई थी व्यसक वैदेही

ठाकुर परिवार में संस्कारी माँ बाप के द्वारा हुए लालन पालन होने के कारण बचपन से धर्म कार्यो में कुशल थी , बचपन से सिखाया गया था , की कोई भी दिक्कत हो आस्था और विश्वास के साथ भगवान से मांगो तो जरूर मिलेगा। बचपन में जो मांगती थी मिलता था , पर ऊपर वाले भगवान नहीं उसके माँ बाप.... नीचे वाले भगवान के कारण। तीसरी कक्षा( 6-7 साल) में थी तो पिताजी ने  श्री दुर्गा सप्तसती  का श्रीकुंजिकास्त्रोपढ़ना सिखाया....संस्कृत के स्लोकों को पढ़ने में वो अपने पिताजी  के पुजा के थाल से प्रसाद खाना बंद कर दिया और फिर धीरे धीरे रुचि लेकर उसमें और कहानिया पढ़ना शुरू किया , उम्र के साथ पढ़ने की रुचि बढ़ी और फिर रामायण महाभारत, गीता , बुद्ध चरित पढ़ा, तब भी जिज्ञासा शांत नहीं हुई तो कुरान , बाइबल भी पढ़ डाला। आठवी कक्षा आते-आते उसके ये सब धरम ग्रंथ पूरे हो गए थे व साथ में मन इस सच को मान चुका था की कोई भी पत्थर में भगवान नहीं होते ,पर ये यहाँ हमारे बनाए गए प्रपंच है। शनिवार को तेल अर्पित करो , मंगल को सिंदूर , शुक्र को गुड और न जाने क्या क्या ये सब का जनम तो ब्रहमनों के कारण हुआ था,की भगवान ने ये कभी किसी को बोला की तुम मुझे ये दे दो तो वो तुम्हारा काम कर दूंगा। 
जनक के समय की कथा पढ़ने से ये पता चलता है की काफी  ब्राह्मणों को ये  धर्म-कर्म क्षत्रियो ने सिखाया था( जैसे की वसिष्ठ पुत्र ने जनक से उनका शिष्य बनने की प्रथना की थी) , पर युद्ध व और कर्मो में लिप्त रहने के कारण राजपूतों ने ये कर्म ब्राह्मणो के होते चले गए, विदेह राज जनक स्वयम कर्म योगी थी , **विदेह थे , गीता का उपदेश देने वाले श्री कृष्ण यढुवंशी क्षत्रिय थे, और आज भी कितने राजपूत परिवार अपने धर्म - कर्म के संस्कार स्वयं करना पसंद करते है।   आज के दिन उसे रामायण पढ़ना सुनना अच्छा लगता है , गीता की बातें सत- प्रतिशत सत्य लगती है , परंतु मंदिर का औचित्य समाज से परे है। उम्र रफ्तार से आगे बढ़ रही थी पर वो कहीं खो सी गई थी , इस जिंदगी के उस दोराहे पर जहां बैचनी से मन उसका मन उद्दीग्न हो उठता था। मन में बार बार बुद्धम शरण्म गच्छामि और कदम खुद ब खुद सन्यास लेने की दिशा में उठ रहे थे। ये सन्यास वो नहीं था जो भगवा पहन कर , दुनिया से दूर होकर लोग लेते थे, ये वो सन्यास था जो लोग कर्मभूमि में रहते हुए लेते है। सब कुछ होते हुए भी दुनिया से विरक्त.....सिर्फ कर्म करने के लिए जीवित अन्यथा सारी इक्छाएँ समय के अग्निकुंड में स्वाहा...
शायद ईश्वर/प्रकृति भी अपने आराधना करवाने का ये एक नायाब तरीका खोज निकाला है.....जिनकी उसे पुजा लेनी होती है उसकी मनोकामनाएँ पूरी मत करो, सारी खुशियाँ छिन लो तो अंततः वो इंसान विरक्त होकर खुद में समय बितायेगा......पर वो ऊपर बैठा परमात्मा/प्रकृति यहाँ चूक गया....वैदेही की सारी इच्छाएँ मर चुकी थी पर वो आस्तिक बनने के बजाय कर्मयोगिनी  बनती जा रही थी....
उसके कानो में गीता के शलोक गुजने लगे : 

     कर्मण्ये वाधिकारस्ते म फलेषु कदाचना, कर्मफलेह्तुर भुरमातेसंगोस्त्वकर्मानी॥

वैदेही के पैरों में कुछ महसूस हुआ तो उसकी तंद्रा टूटी ,  नीचे देखा तो कुत्ते के 4-5 छोटे छोटे बच्चे उसके पास खेल रहे थे और एक पैर चाट रहा था, उसके ऊपर चढ़ने की कोशिश कर रहा था,.....अपनी चिंता व मन की उद्दीग्नता त्यागकर उसने खुले मन से उस बच्चे को उठाया और उससे बातें करके, उसके साथ खेलकर फिर से कहकहाने लगी...अपनी  चिंताओं को तिलांजलि दे कर कर्मभूमि के पथ पर जाने को  फिर से तैयार पर इस बार सिर्फ कर्म करने , फल की उम्मीद छोर कर...एक सच्चे कर्मयोगी की तरह......विदेह राज की पुत्री वैदेही की भांति....
 to be contd..





{** राजा जनक विदेह कहलाते हैं देह से परे जीने वाले विदेह। अनेक ऋषि-मुनियों ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया हैं एवं उनका उल्लेख करते हुए निष्काम कर्म, निर्लिप्त जीवन जीने वाला बताया हैं। अगणित लोगों को उन्होने ज्ञान का शिक्षण दिया।एक गुरू ने अपने शिष्य को व्यावहारिक ज्ञान की दीक्षा हेतु राजा जनक के पास भेजा। शिष्य उलझन में था कि मैंने इतने सिद्ध गुरूओं के पास शिक्षण लिया। भोग-विलासों में रह रहा राजा मुझे क्या उपदेश देगा ! जनक ने शिष्य के रहने की बड़ी सुंदर व्यवस्था की। सुंदर सुकोमल बिस्तर, किंतु शयनकक्ष में पलंग के ठीक ऊपर एक नंगी तलवार पतले धागे से लटकती देखी, तो वह रात भर सो न सका। सोचता रहा कि गुरूदेव ने कहां फंसा दिया, जनक से शिकायत की ! कि नींद क्या आती-आपके सेवकों ने तलवार लगी छोड़ दी थी। इससे अच्छी नींद तो हमें हमारी कुटी में आती थी। जनक ने कहा-‘‘चलो आओ। रात की बात छोड़ो, भोजन कर लेते हैं। ‘‘सुस्वादु भोजनों का थाल सामने रखा गया। राजा बोले-‘‘आराम से भोजन करें, पर आप अपने गुरू का संदेश सुन लें। उन्होंने कहा हैं कि शिष्य को सत्संग में ज्ञान प्राप्त होना जरूरी हैं। यदि न हो तो उसे आप सूली पर चढ़ा दें। आपको बताना था, सो बता दिया। अब आप भोजन करें। ‘‘भोजन तो क्या करता, उसे सूली ही दिखाई दे रही थी। बेमन से थोड़ा खाकर उठ गया। बोला-‘‘महाराज ! अब आप किसी तरह प्राण बचा दें।‘‘ जनक बोले-‘‘आप सत्संग की चिंता न करें, वह तो हो चुका। रात आप सो न सके, किंतु मुझे तो नंगी तलवार की तरह हर पल मृत्यु का ही ध्यान बना रहता हैं। अतः मैं रास-रंग में डूबता नहीं। सूली की बात सुनकर तुम्हें स्वाद नहीं आया। इसी प्रकार मुझे भी इस शाश्वत संदेश का सदा स्मरण रहता है। मैं माया के आकर्षणों में कभी लिप्त नहीं होता। संसार में रहो अवश्य, पर संसार तुममे न रहे। यही सबसे बड़ा शिक्षण लेकर जाओ।’’ अब शिष्य को ज्ञान हुआ कि जनक विदेह क्यों कहलाते हैं}

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